दंगे में मुर्गा की मुर्गा बीती

ज्ञान चतुर्वेदी 


    “मूर्खता बहुत चिंतन नहीं मांगती | बस थोडा सा कर लो, यही बहुत है | न भी करो तो चलता है |” ये पंक्तियाँ पढ़ते हुए मैंने चैन की सांस ली और सोचा कि जब ज्ञान चतुर्वेदी जी ने स्वयं ये बात कह दी है तो उनकी किताब के बारे में लिखते हुए मन पर उनके कद का बोझ लाद कर ज्यादा चिंतन क्या करना | 
      वैसे भी उन्होंने ही ये भी लिखा है कि “चिंतन का पहला पेंच यही आता है कि मूर्ख किसे कहें? परिभाषा क्या है ? मूर्खता नापने का कोई यन्त्र होता नहीं ........बस, अंदाज से पता करना होता है ...........परन्तु कई बार बातों से भी कुछ पता नहीं चल पाता | कठिन होता है क्योंकि कुछ मूर्ख भी रटी  रटाई बुद्धिमत्तापूर्ण बातें करते हैं |” ये पढ़ते हुए बहुतों के साथ ही अपना भी ख्याल आ रहा है लेकिन उम्मीद ही कर सकती हूँ कि इस लेख को पढ़ते हुए और कोई हमारी असलियत न पहचान पाए |
  व्यंग विधा के सिद्धहस्त लेखक ज्ञान प्रकाश चतुर्वेदी जी का हृदय रोग विशेषज्ञ होना, लेखन और चिकित्सा का ये मेल कुछ “मष्तिष्क और सौन्दर्य” जैसा दुर्लभ संयोजन ही कहा जायेगा |
    इनकी किताब ‘दंगे में मुर्गा’ पढ़ते हुए सहज ही आभास हुआ कि पूरी गंभीरता और जिम्मेदारी से लिखे गए इस व्यंग्य संग्रह में व्यंग्यकार की प्रखर व्यंग्य दृष्टि कितनी सधी और तीक्ष्ण है | साथ ही  ये भी कि क्यों ज्ञान चतुर्वेदी जी का नाम समकालीन व्यंग्यकारों के बीच में एकदम अलग दिखाई पड़ता है | इस किताब में कुल २६ व्यंग्य है जो अलग अलग विषयों को लक्ष्य कर लिखे गए हैं | यह ज्ञान जी की संवेदनशीलता ही है जो जमीन से जुड़े किसानों की व्यथा महसूसते हुए व्यंग्य के माध्यम से पाठको को न सिर्फ सच दिखाते है वरन सोचने पर मजबूर भी करते हैं |
   “किसान क्या है ? भारतीय किसान एक दोपाया जानवर है, जो प्रथम दृष्टि से देखने पर इंसानों से मिलता जुलता दिखाई पड़ता है | इसी कारण से कई नासमझ लोग किसान को भी इंसान मान लेते हैं तथा चाहते हैं कि इनके साथ भी इंसानों जैसा व्यवहार किया जाय, परन्तु मात्र दो पैरों पर चल लेने से ही कोई इंसान नहीं बन जाता |” 
   ये तीखा व्यंग उन किसानों की कहानी बयान करता है जिन्हें अपने अधिकार भी एहसान की तरह मिलते हैं वो भी तमाम छोटे मोटे अधिकारियों के आगे पीछे एडियाँ रगड़ने के बाद | ज्ञान जी कवियों की कल्पनाओं वाले गाँव की गोरी, पनघट, आँगन की तुलसी, खेतों की हरियाली, टेसू, चौपाल की माया, माटी की सोधी खुशबू के मायावी संसार से अलग वास्तविक गाँव और किसान के दर्शन कराते हैं जहाँ “किसान माने दलिद्दर, बदहाली, बेकारी, हाड़तोड़ मेहनत, आशंका भरा जीवन, नकली खाद, थानेदार का जूता, सिपाही से पिटना, बैंक वालों की चिरौरी आदि |
 “गांवों में सन्नाटा है आजकल | कोई गाता नहीं, दीवारों पर उल जलूल तस्वीरें नहीं खींचता और न ही कोई यहाँ वहां नाचता दिखाई पड़ता है | सभी को भय है कि सरकार को पता चल गया तो मुश्किल हो जायेगी | सरकार आजकल संस्कृति के पीछे पड़ गयी है | सरकारी कारिंदे लोक कला को डाकुओं की तरह खोजते फिर रहे है |........ गाँव वालों का डर स्वाभाविक है | अफसर के हाथ गाँव वाले की जमीन फंसे या संस्कृति, उसका एक ही हाल होना |” 
ये पंक्तियाँ ‘लोक कला के तीलोरामा और जिंगलपोली’ की हैं जो लोक कलाओं और संस्कृति को बढ़ावा देने के नाम पर मिल रहे सरकारी अनुदानों के येन केन उपभोग के लिए लोक कला और उसके कलाकारों की खोज बीन और उनके शोषण पर लिखा गया चुभता सा व्यंग्य है | 
जहाँ ‘सर्दी के दिन’ जाड़े के दिनों की खूबियों और खामियों से जूझते समाज के सभी वर्गों के अनुभवों से गुदगुदाता हलका फुलका व्यंग है वहीँ “चरखे की खोज, सरकारी गैर सरकारी महकमों में गांधी जयंती और अन्य राष्ट्रीय पर्वों पर सम्बंधित से दिखावटी आस्था दिखाने पर लिखा गया मजेदार व्यंग |   
  “अक्टूबर के महीने में राजनीतिज्ञों को चरखा लगता है, जैसे नवम्बर-दिसंबर में आदमी को शाल स्वेटर लगता है |” ये पंक्तियाँ न सिर्फ गुदगुदाती हैं समकालीन राजनीति का वास्तविक चेहरा भी दिखाती हैं |
     ज्ञान जी की लेखनी की यही विशेषता है कि वे समाज और समय को देखने का एक आलोचनात्मक नजरिया देते हैं जिससे पाठक स्वंय अपना स्वतंत्र दृष्टिकोण विकसित कर सही गलत का आकलन कर सके | इसी कड़ी में सरकारी अनुदानों को प्राप्त करने के प्रोजेक्टों पर आधारित व्यंग “पशु प्रेम प्रोजेक्ट” और राजनीति में चल रहे अवसरवाद पर चोट करता करारा व्यंग “राजनीति, कुत्ते, चुनाव और मुख्यमंत्री जी” है | इसका उद्देश्य सिर्फ पाठक को हँसाना ही नहीं वरन वर्तमान राजनीति को आइना दिखाना भी है |
 हास्य और व्यंग के आपसी सम्बन्ध के बारे में इनके साक्षात्कार में एक बार सुना था मैंने कि ‘व्यंग रोने की बात पर हंसाता है | जब हास्य का संबल लेकर व्यंग करुणा तक पहुंचे तभी गहरा व्यंग संभव है और तभी उसकी सार्थकता भी है | जब तक व्यंग में करुणा या जीवन की समझ नहीं तब तक वह व्यंग नहीं |’ ये संवेदना ज्ञान जी के व्यंगों में साफ़-साफ़ झलकती है | गाँव के स्कूल में कंप्यूटर, रेल और गाँव का आदमी, मेरे गाँव में राम रावण या कर्फ्यू में राम गोपाल सभी एक से बढ़कर एक और जीवन से जुड़े संबंधों पर चुटीले ढंग से लिखे गए व्यंग न सिर्फ पाठक को उस धरातल से जोड़ते हैं बल्कि कई बार पाठक खुद को उन्ही के बीच तिलमिलाता सा खड़ा भी पाता है | 
    तंत्र मन्त्र के अन्धविश्वासों पर एक व्यंग ‘तंत्र से गुजरते हुए’ है जिसके अनुसार “भूत को वश में करना, प्लेनचेट पर मृत बाप से खजाने का पता पूछना, बिच्छू उतारना, सांप काटे का इलाज करना, कौड़ी फेंक कर सांप को बुलाना, भूतों से बात चीत करना, तरह तरह के यन्त्र बनाकर गले में लटकाना, काली गाजर को एक महीने तक मुर्गे को खिलाना फिर खुद उस मुर्गे को खा जाना, सड़क पर कटा नींबू देखकर भयभीत हो जाना आदि आदि जाने कितने खटकर्मों के बीच जी रहा था हमारा गाँव | अभी भी जी रहा है मेरा गाँव इन्ही के बीच | तंत्र के काटे का कोई मन्त्र नही |” ये मात्र व्यंग नही एक कुरूप सत्य है जिस पर लेखक बहुत ही कुशलता से लोगों का ध्यान ले जाते हैं |
   ‘गरीबी रेखा : एक चिंतन’ के मास्साब भले आज रेखा बनाने वाले दो बिन्दुओं से थोडा ऊपर आकर मुख्य धारा में शामिल होने के करीब हैं लेकिन वास्तव में जिनके लिए ये व्यंग लिखा गया वो आज भी कहीं न कहीं उसी रेखा के नीचे आसमान तलाशते नजर आते हैं | लेखक एक जगह लिखते हैं कि “यह तो मैंने बहुत बाद में आकर जाना कि गरीबी रेखा राजनीति और अफसरशाही इन दो बिन्दुओं के बीच फैली हुयी वस्तु हैं | उन बिन्दुओं को विस्तार देती है ये रेखा |.......... जितने अधिक लोग इस रेखा के नीचे रहें, ये उतने ही सुरक्षित  हैं | फिर भी नाटक चलता रहेगा उस रेखा को हटाने का | होता रहता है अभिनय लोगों को गरीबी रेखा से ऊपर लाने का |” 
  ‘पुलिया, गरम बोनट और बकरियां’ बहुत ही रोचक ढंग से लिखी गयी एक बस की कथा नही बल्कि लस्टम खस्टम चल रहे देश का वास्तविक दर्शन है | “ आगे के दरके हुए कांच पर ही मक्का मदीने की पाक तस्वीर चस्पां है | परन्तु केवल अल्लाह ही इस बस की जिम्मेदारी संभाले और परेशान हो ये हाफिज मियाँ को बर्दाश्त नहीं | नीचे शंकर जी की मूर्ति भी है और उसके पास ही स्टील का बना नंदी का सिर भी | एक तरफ हनुमान जी की तस्वीर भी | बस ऐसी है भी कि एक दो देवताओं के बूते की बात नहीं लगती |” 
    यानि बस के वर्णन में निम्न वर्ग के जीवन संघर्ष का पूरा दर्शनशास्त्र जहाँ तहां पसरा दिख जाता है और बस अपनी रफ़्तार से ठीक उसी तरह धूल उड़ाती, दिशाहीन तूफ़ान सी, गरजती, किसी तरह चली जा रही है जैसे लोकसभा में बहस चलती रहती है और उसका देश के चलने से कोई मेल नहीं होता | 
   दंगे में मुर्गा इस संग्रह की सबसे बड़ी रचना है जो शुरू होती है मुर्गाबीती (जैसे आपबीती) से कि “सारा शहर ही ऐसे मुर्गों तथा आम आदमियों से अटा पड़ा है जो राम राम भजे जा, यही गिल धरे जा पर विश्वास करता था | ईश्वर और अल्लाह पर बराबर भरोसा करने वाले लोग | कहने वाले कि जो पिंड में वो ब्रह्माण्ड में | परन्तु शहर ऐसा निर्दयी तथा कठोर कि......हमेशा तनाव, गुस्से और आशंका से भरा शहर कि दायाँ खाए सो मुंह लाल, न खाए तो मुंह लाल | ऐसे शहर में हो गया हिन्दू मुस्लिम दंगा |” और इस दंगे में कथा का नायक मुर्गा फंस गया | 
    कथा में मुर्गा और कबूतर एक सामान्य हिन्दू मुस्लिम शहरी का प्रतिनिधित्व करते हैं जो दंगो के हालत पर चर्चा करते हुए अचंभित हैं कि जब हिन्दू मुस्लिम दोनों डरे हुए तो आखिर दंगा कर कौन रहा है | लेखक ने अपनी पैनी दृष्टि से चुनकर एक वास्तविक और बहुत ही संवेदनशील मुद्दा उठाया है और साथ ही बड़े ही अनोखे तरीके से कथा खत्म भी की है जिसका नायक भले एक मुर्गा है लेकिन संवेदनाओं में है यथार्थ और सम्पूर्ण मानवीयता जिससे बिना ज्यादा प्रयास के पाठक व्यंग की तह तक पहुँच कर स्वयं को पीड़ा से कसमसाता हुआ पाता है | जीवन और समकालीन समाज से जुड़े और भी कई रोचक व्यंग है किताब में जिसे पढ़कर ही उसका वास्तविक आनन्द लिया जा सकता है | 
ज्ञान जी की रचनाओं में व्यंग खालिस व्यंग न रहकर जीने का सलीका सिखाने वाला एक महत्वपूर्ण दस्तावेज सा आभास देता है | वे व्यंग को चुटकुलेबाजी से इतर जीवन को देखने का एक दृष्टिकोण मानते है, यूँ कि जीवन सुख दुःख से भरा है अब यह आप पर है कि आप किस कोण से जीवन को देखते हैं क्योंकि इसे देखने के ३६० अंश हैं और हर कोण से वह अलग दिखती है | इनकी भाषा की बात करें तो वो अत्यंत रोचक, प्रयोगशील, प्रवाहपूर्ण, बेहद सधी हुई और सरल जो सहज ही पाठक के हृदय में स्थान घेर लेती है | एक जो सबसे खास बात मुझे इनकी रचनाओं में नजर आती है वो है अपनी लोक संस्कृति की महक जो इन्हें अन्य व्यंगकारों से अलग पंक्ति में रखती है | बाकी स्वयं पढ़े और व्यंग की व्यथा को महसूस करें | 


                भारती पाठक


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